रविवार, 23 अगस्त 2015

जिस राह पर.. हर बार मुझेे....

जिस राह पर.. हर बार मुझेे....
अपना कोई.. छलता रहा...

फिर भी...न जाने क्यूँ मैं..
उसी राह ही... चलता रहा;

सोचा बहुत.. इस बार..
रोशनी नहीं.. धुँआ दूँगा

लेकिन... दीपक हुँ  फ़ितरत से..
जलता रहा..जलता ही रहा...

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें