शनिवार, 22 अगस्त 2015

चेहरे गुलाब नहीं होते

जाने क्यूँ अब शर्म, से चेहरे गुलाब नहीं होते।
जाने क्यूँ अब, मस्त मौला मिजाज नहीं होते।

पहले बता दिया करते थे, दिल की बातें।
जाने क्यूँ अब चेहरे, खुली किताब नहीं होते।

सुना है बिन कह, दिल की बात समझ लेते थे।
गले लगते ही, दोस्त हालात समझ लेते थे।

जब ना फेसबुक थी, ना व्हाट्स एप था, ना मोबाइल था
एक चिट्ठी से ही, दिलों के जज्बात समझ लेते थे।

सोचता हूँ, हम कहाँ से कहाँ आ गये।
प्रेक्टिकली सोचते सोचते, भावनाओं को खा गये।

अब भाई भाई से, समस्या का समाधान कहाँ पूछता है
अब बेटा बाप से, उलझनों का निदान कहां पूछता है

बेटी नहीं पूछती, माँ से गृहस्थी के सलीके।
अब कौन गुरु के चरणों में, बैठकर ज्ञान की परिभाषा सीखे।

परियों की बातें, अब किसे भाती हैं
अपनों की याद, अब किसे रुलाती है

अब कौन गरीब को, सखा बताता है
अब कहाँ कृष्ण, सुदामा को गले लगाता है

जिन्दगी में हम प्रेक्टिकल हो गये हैं
रोबोट बन गये हैं सब, इंसान जाने कहां खो गये हैं .......!

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